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शुक्रवार, 17 मार्च 2017

कैदी परिन्दा

बंद एक पिंजरे मे परिंदा
याद करता अपनी आज़ादियाँ
कल तक जीवन ख़ुशनुमा था
आज हैं बरबादियाँ

कल तक आसमां में दूर तक परवाज़ थी
आज बंद हु कैद मे हाय: रे ये बेबसी
माना कि बाहर है दाना-पानी ढ़ुंढ़ने की दुश्वारियाँ
इस बंद पिंजरे मे है सब कुछ मयस्सर यहाँ
फिर भी इस बंद पिंजरे में है वोह लज्ज़त कहाँ
जो लज़्ज़त दे सकतीं हैं आसमां की बुलंदियाँ
कैद में गर सौ बरस जिये तो किया जिये
इससे बेहतर है दो पल की आज़ादियाँ
जिंदगी है कैद बन गई,मौत बन गई आज़ादियां
गर हो रिहाई तो ये दूर हो तंहाईयाँ

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