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गुरुवार, 6 अक्तूबर 2016

आत्महत्या के विरोध


"आत्महत्या  के विरोध में "
    


   

मैं  बंद आँखों से,

अखबार पढ़ते हुए

सोचता हुँ

इस नए समाज के बारे में

जिसे हमने बनाया है

एक आधुनिक समाज।

यह समाज जिसमें

नही समय एक दूसरे के लिए

जहां एक पार्क में लोग होते हैं इकट्ठे,

पूजा के लिए

कहते हैं हम

व्यष्टि नहीं  समष्टि हैं।

फिर  इसी समाज में

एक हवा का झोका

बिखेर देता है परिवार को,

ओर पड़ोसी बेख़बर!

लोग करतें हैं  आत्महत्या

नही आता कोई जानने

क्या हुआ?क्यों हुआ?

आगे क्या होगा?

पीछे छूटे लोगो का।

फिर दोबारा उसी  जगह

होती है आत्महत्या

पता चलता है  सिर्फ दो लोगों को

एक चौकीदार,एक नौकरानी

बाकि जानते हैं अगले  दिन

अखबारों से

यह कैसी विडंबना है

कि हमारे  लिए  दूसरे को

जानना  मना है।

क्यों हो रही  आत्महत्याएँ?

क्या लोग  समझ रहे हैं खुद को दोषी?

कर रहे हैं आत्मग्लानि।

नहीं!

बल्कि लोग हो गए हैं अकेले

घिरे हुए अवसाद से,

कर रहे हैं  चिंतन

अपनी खोई हुई  अस्मिता का

यह अवसाद और  अस्मिता का दबाव

जिसे खत्म करने के  लिए

नही है वाल्व,

इस आधुनिकता के इस प्रेस कुकर में।

इसलिए  लोग तिल कर मर रहे

अब  जरूरत है

इस प्रेशर कुकर में  वाल्व लगाने की

या फिर इसके ढक्कन को हटाने की।

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