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शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

प्रेम

वोह तुम्हारा प्रेम
मानो पेड़ की घनी छाया
जिसके तले
हम करते थे विश्राम
मानो आये
हो चल कर दूर से
रुक गए हों थक कर
बहुत दिन हुए
यह सफर पुरा क्यो नही होता
क्या नही है प्रेम की उपमा
तरुवर की ये घनी छाया
तो फिर प्रेम क्या है
नागफनी
य़ा फिर काठगुलाब
जिसमें फूल के साथ
कांटे भी हैं


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