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बुधवार, 26 दिसंबर 2018

सुनो प्रिये


 


सुनो !
मुझे एक बात कहनी है
मेरे पास ज़बान है
पर मेरे पास शब्द नही है
मौन मे अभिव्यक्त करूंगा
अपनी बात
क्या प्रिये तुम समझ पाओगी!
इस ख़ामोश अभिव्यक्ति को।

सुनो!
मैं व्यंजना में बात करता हूँ
मगर
तुम अभिधा में समझती हो
तुम्हारे और हमारे बीच
व्याकरण की यह दूरी
होने नही देती
प्रेम कविता को पूरी
लक्षणा में अगर कह दूं
तो क्या तुम समझोगी!
मेरी इस पंक्ति को



सुनो!
नहीं भाता हूँ मैं तुमको
शायद सूरत ही कुछ ऐसी हो
जो ना किसी को सुहाती हो
मगर फिर भी
मैं कहता हूँ कि
गढ़ा सब को कुदरत ने 
मैं भी उसकी
अनुपम प्रतिकृति हूँ
सौंदर्यबोध की
इस मृगतृष्णा को
गर तुमने नही छोड़ा
तो फिर कैसे समझोगी
इस अनुकृति को।


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